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स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक बाद देश के सर्वोच्च पदों, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष पर वह व्यक्ति बैठे हैं जो सीधे-सीधे भाजपा से हैं और जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से प्रभावित हैं की जगह यदि कहा जाए कि सभी संघ की देन हैं तो भी गलत नहीं होगा। 1925 में जब डा. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने संघ की स्थापना की थी, तब उन्होंने सत्ता को नहीं बल्कि उस हिन्दू विचारधारा और संस्कृति को प्राथमिकता दी थी जो उनके विचार अनुसार देश को एक मजबूत आधार देते हुए देश को एकजुट रख सकती थी। देश की आजादी की कल्पना कर देश के आजाद होने के बाद बिना किसी विचारधारा और संस्कृति के देश की क्या हालत होगी, उसी का ध्यान रखते हुए डा. हेडगेवार ने संघ की स्थापना की थी।
आज देश के सर्वोच्च पदों पर संघ की विचारधारा में आस्था रखने वाले लोग विराजमान हैं। संघ विचारधारा का विरोध तो कांग्रेस ने उसकी स्थापना के साथ ही कर दिया था जो आज तक जारी है। आजादी के बाद परिवर्तन मात्र इतना आया है कि कांग्रेस जितना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विरोध करती है लोग कांग्रेस से उतना दूर होते चले जा रहे हैं। इसका मूल कारण यह है कि देश के आम जन संघ को एक राष्ट्रवादी संगठन के रूप में देखते हैं, क्योंकि संघ ने देश या समाज के सामने आने वाली प्रत्येक कठिनाई व चुनौती का हल राष्ट्रहित को सम्मुख रख कर करने का सुझाव दिया और उस पर अमल भी किया। परिवारवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार, भाषा, इत्यादि सभी प्रकार के मुद्दों पर संघ ने आम जन को वही राह दिखाई जिसमें देश का हित था। ऐसा करने पर संघ को तत्काल कोई नुक्सान भी हुआ तो संघ ने उसे बर्दाश्त किया। संघ का विरोध कांग्रेस के साथ-साथ वामपंथी और कुछ मुस्लिम संगठन शुरू से लेकर आज तक कर रहे हैं और संघ को एक कट्टरवादी संगठन कह कर उसे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
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संघ के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों ने तमाम आरोपों और हो रहे विरोध की परवाह किए बिना डा. हेडगेवार द्वारा दिखाई राह पर चलते हुए वह ही किया जो समाज व देशहित में था। संघ के निष्काम कार्यकर्ताओं के अनथक परिश्रम का ही परिणाम है कि आज देश के और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघ का प्रभाव दिखाई देता है। [maxbutton id=”1″ url=”http://youthdarpan.com/post-submissions-yd/” text=”हिंदी में लिखें” ]
वर्तमान में चीन जिस तरह भारत को धमका रहा है उसको देखते हुए संघ के कार्यकर्ता ही चीन निर्मित वस्तुओं के इस्तेमाल का विरोध कर रहे हैं। संघ के कार्यकर्ता घर-घर जाकर चीन और पाकिस्तान के नापाक इरादों को उजागर कर उन द्वारा बनाई वस्तुओं का, विशेषतया जो रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाली हैं, विरोध कर रहे हैं। देश में इस प्रकार का अभियान अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं चलाया। अतीत में जाएं तो पाएंगे कि स्वतंत्रता की लड़ाई के समय में तुष्टिकरण की नीति के कारण हिन्दू समाज की अनदेखी होती थी। इस बात को हेडगेवार ने समझा और तुष्टिकरण की नीति का विरोध कर देश के बहुमत समाज को एक लक्ष्य व दिशा देने हेतु संघ की स्थापना की। आज डा. हेडगेवार का वह सपना कि देश की राजनीति में हिन्दू समाज की एक निर्णायक भूमिका है साकार हो गया है।
संघ की दृष्टि बारे हो.वे. शेषाद्रि अपनी पुस्तक कृतरूप संघ दर्शन में लिखते हैं, ‘हम अपने आप को सुधारें और अपने पतन और अधोगति के लिए दूसरों पर दोषारोपण न करें। उसमें नकारात्मक भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके मुस्लिम-विरोधी अथवा ईसाई -विरोधी और यहां तक कि अंग्रेजी-विरोधी होने का प्रश्न नहीं उठता। एक बार किसी सज्जन ने श्री गुरुजी से प्रश्न किया कि क्या संघ हिन्दुओं का संगठन मुस्लिमों की विभिन्न गतिविधियों का सामना करने के लिए कर रहा है? उनका उत्तर था: ‘पैगंबर मोहम्मद यदि पैदा न भी हुए होते और इस्लाम अस्तित्व में न आता तो भी यदि हम देखते कि हिन्दू वैसी ही असंगठित और आत्म-विस्मृत स्थिति में है जैसे कि इस समय हैं तो हम इस कार्य को ठीक उसी प्रकार करते जिस प्रकार आज कर रहे हैं।’
जोडऩे वाली बातों पर बल दो और तोडऩे वाले मतभेदों की ओर ध्यान ही न दों, संघ की नीति का यह एक और विशिष्ट रचनात्मक पक्ष है। संघ के कार्यक्रम इस प्रकार तैयार किए जाते हैं कि भागीदारों के अन्तर्निहित एकात्म भाव को जाग्रत किया जाए और वे अटूट सामाजिक भाईचारे के बंधन में बंध जाएं। इस नीति का प्रभाव-क्षमता संघ के बाल्यकाल से ही प्रकट होने लगी। 1934 में जब गांधी जी वर्धा में 1500 स्वयंसेवकों और शिविर देखने गए तो उन्हें यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि अस्पृश्यता का विचार रखना तो दूर वे तो एक दूसरे की जाति भी नहीं जानते थे। इस घटना का गांधी जी के मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि पूरे चौदह वर्षों बाद उन्होंने इसका उल्लेख किया 16 सितंबर, 1947 को दिल्ली की भंगी बस्ती में। संघ कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘वर्षों पूर्व जब संघ-संस्थापक डा. हेडगेवार जीवित थे, मैंने संघ-शिविर देखा था। आप लोगों का अनुशासन, अस्पृश्यता से सर्वथा मुक्त आचरण और कठोर सादगी देखकर में गद्गद हो उठा था। उसके बाद तो संघ फलता-फूलता ही गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि जो भी संगठन सेवा और त्याग के उच्चादर्श से अनुप्राणित होगा, उसकी शक्ति दिनोंदिन बढ़ती जाएगी।’
1939 में डा. बाबा साहेब अम्बेडकर पूना में संघ-शिक्षा वर्ग देखने गए। वे भी यह देखकर अचरज में पड़ गए कि स्वयंसेवक परस्पर शत-प्रतिशत बराबरी का, भाई का सा व्यवहार कर रहे थे। एक दूसरे की जाति जानने की उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी। डा. अम्बेडकर ने डा. हेडगेवार से पूछा कि क्या शिविर में कोई अस्पृश्य भी है? उत्तर मिला कि शिविर में न तो स्पृश्य हैं और न ही अस्पृश्य। यहां तो केवल हिन्दू हैं। अस्पृश्यता के बारे में संघ के पूर्व-सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस ने अमरीका में अश्वेत दास्ता के संदर्भ में लिंकन की प्रसिद्ध उक्ति की शैली में कहा था, ‘यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है तो संसार में कुछ भी गलत नहीं है। उनके इन भावपूर्ण शब्दों की अनुगूंज देश भर में फैली। ऐसी दृढ़ आस्था में तप कर निकले स्वयंसेवक यह संदेश समाज के सभी वर्गों तक पहुंचाते हैं। इसके लिए वे घर-घर जाकर संपर्क करते हैं। वे लोगों से वार्ता करके उन्हें समझाते हैं और समुचित कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। इनके द्वारा अस्पृश्यता और जातिवाद जैसी घातक बुराईयों को शनै: शनै: दूर किया जा रहा है। कई शताब्दियों से और बुराइयां हमारे समाज के मर्म-स्थलों को खाए जा रही हैं।
1938 में पुणे में महाराष्ट्र हिन्दू परिषद् को संबोधित करते हुए डा. हेडगेवार ने कहा था:- ‘जो मैं और राष्ट्र एक ही है, यह भाव लेकर राष्ट्र एवं समाज के साथ तन्मय होता है वही सच्चा राष्ट्रसेवक है। कुछ लोग बड़े अभिमान से कहते हैं कि राष्ट्र के लिए मैंने इतना त्याग किया’। इस प्रकार वे यह दिखा देते हैं कि वे राष्ट्र से अलग हैं। उदाहरण के लिए- मैंने अपने बेटे के यज्ञोपवीत पर खर्च करके बड़ा भारी त्याग किया। पिता के लिए यह कहना कहां तक युक्तिसंगत होगा? कुटुम्ब के लिए किया गया खर्च जैसे स्वार्थ-त्याग नहीं होता, वैसे ही राष्ट्ररूपी कुटुम्ब की सेवा में किया हुआ व्यय भी स्वार्थ-त्याग नहीं है। राष्ट्र के लिए खर्च करना, कष्ट सहना तो प्रत्येक घटक का पवित्र कर्तव्य है।’
समाज के उपेक्षित वर्गों की सेवा के कार्य में जुटे कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करते हुए श्री गुरुजी ने लिखा:- ‘आपके लिए आवश्यक है कि हृदय में कठोर कर्म करने की उमंग हो और दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में उसका सदुपयोग हो। आपके कर्म का स्वर आध्यात्मिक हो, नैतिक हो और सामाजिक भी। हमारे कार्यकर्ताओं को चाहिए वे अपना कार्य विशुद्ध धर्म-भावना से करें। चाहे कोई ईसाई हो या मुस्लिम या फिर किसी भी अन्य विचारधारा का क्यों न हों, हमें सेवा करते समय उनमें किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए क्योंकि विभीषिकाएं, संकट और दुर्भाग्य ऐसा कोई अंतर नहीं करते, बल्कि सबको समान रूप से त्रस्त करते हैं।’
संघ की उपरोक्त विचारधारा से प्रभावित हो लाखों-करोड़ों लोग समाज व देश सेवा में जुटे हैं। उन से कुछ नींव के पत्थर बने हुए हैं और कुछ शिखर के ताज पर हैं। सबका महत्व संघ की दृष्टि में एक समान ही है। सर्वोच्च पदों पर पहुंचे लोगों के पीछे की विरासत और विरासत व विचारधारा के लिए संघ के संघर्ष को देख व समझ कर कह सकते हैं कि देश में अब एक नए युग की शुरुआत हुई है जिसका केन्द्र बिन्दू केवल राष्ट्रहित है।
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