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नोटबंदी की विफलता के साथ उभरते हुए नये सवाल??

अंतत: वह आंकड़ा सामने आ गया, जिसका 9 महीने से देश को इंतजार था और वे दावे भी सतह पर आ गए जो नोटबंदी के दौरान सरकार ने किए थे। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के आईने में देखें तो सरकार नोटबंदी के मोर्चे पर असफल दिख रही है। कालेधन से जंग की इस कवायद के अपेक्षाकृत परिणाम नहीं मिले, बल्कि नए नोटों की छपाई में जनता के 5 हजार करोड़ रुपए और खप गए। नोटबंदी के दौरान देश में प्रचलन में रहे 15.44 लाख करोड़ रुपए बंद किए गए थे। इनमें से 15.28 लाख करोड़ रुपए पुन: बाजार में वापस लौटकर आ गए। यानी 1.4 प्रतिशत मूल्य के नोट छोड़ बाकी सभी नोट बैंकों के पास वापस आ गए हैं।

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नोटबंदी से पहले 1,000 रुपए के 632.6 करोड़ नोट चलन में थे, जिसमें से मात्र 8.9 करोड़ नोट प्रणाली में वापस नहीं आए। यानी कह सकते हैं कि सिर्फ 8.900 करोड़ रुपए केंद्रीय बैंक के पास वापस नहीं पहुंचे। यह स्थिति तब है जबकि सैकड़ों लोग अब भी पुराने नोट बदलवाने के इंतजार में हैं। यानी लोगों को मौका मिले तो बैंकों में वापस न आने वाले नोटों का आंकड़ा और कम हो सकता है। फिर भी जो संख्या उपलब्ध है, उसके आधार पर ही सरकार से पूछा जा सकता है कि क्या इतने धन के लिए ही पूरे देश को सड़कों पर उतार दिया गया था? जनता को यह सवाल पूछने का अधिकार भी है, क्योंकि उसके श्रम का प्रतिफल देश के विकास के रूप में मिलने के सपने दिखाए गए थे।

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नोटबंदी को लेकर भारत सरकार इतना गजब का विश्वास दिखा रही थी कि उसने इसमें कालेधन और नकली करेंसी के अलावा नक्सलवाद और आतंकवाद की भी दवा खोज ली थी। दरअसल नोटबंदी की मुहिम उसी वक्त फैल दिखाई देने लगी थी, जब आम आदमी कतारों में अपने दो-दो, चार-चार नोट बदलवाने के लिए कई-कई दिन तक कतारों में खड़ा था और धन्नासेठों के घर बक्से भर-भर के नए नोटों की खेप पहुंच रही थी। बावजूद इसके सरकार इस बात का भरोसा दिलाती रही कि इसके पीछे उसका गहन उद्देश्य कामयाब हो रहा है, जबकि परिणाम इसके उलट दिखाई दे रहे थे। दरअसल उत्तर प्रदेश चुनाव के ऐन पहले लिया गया यह फैसला शुरुआत से ही सवालों में रहा। देश-विदेश के कई अर्थशास्त्रियों ने मोदी सरकार के इस फैसले पर उंगली उठाई। लेकिन उत्तर प्रदेश चुनावों की सफलता को सरकार ने नोटबंदी की सफलता से जोड़कर सबका मुंह बंद कर दिया। नीति निर्धारक फैसलों के प्रतिकूल परिणाम पर सियासी सफलता की चादर डालकर तात्कालिक रूप से तो बचा जा सकता है, लेकिन इसके प्रभाव दूरगामी और व्यापक परिणामों से बचना मुश्किल होता है। अर्थव्यवस्था के आंकड़े इसके गवाह हैं।

इसीलिए शायद वृंदावन (मथुरा) में पिछले दिनों आरएसएस की तीन दिन की बैठक में नोटबंदी और जीएसटी को लेकर जनता में बढ़ रही निराशा पर चिंता व्यक्त की गयी और केंद्र सरकार से तत्काल उचित कदम उठाने के लिए कहा गया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह दोनों मुद्दे कितने गंभीर हैं। कहा जा रहा है कि नोटबंदी से जो पैसा बैंकों में लौटा है, उसके अर्थव्यवस्था के लिए कोई खास मायने नहीं हैं। गौरतलब है कि इस फैसले के तहत सरकार ने बीते वर्ष नवम्बर माह में 500 और 1000 रुपये के नोटों को चलन से बाहर कर दिया था, ताकि अर्थव्यवस्था को कालेधन और भ्रष्टाचार से निजात दिलाई जा सके।

आतंकवाद पर प्रभावी रोक लगाने को भी इस फैसले के लक्ष्य के रूप में गिनाया गया था, लेकिन अब भारतीय रिजर्व बैंक ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उससे इस योजना की विफलता पर मुहर लग गई है। दरअसल, विमुद्रीकरण योजना निन्यानवे प्रतिशत तो पहले ही विफल दिखाई देने लगी थी, जब रिजर्व बैंक ने बीते जनवरी माह में इस संबंध में आंकड़े जारी किए थे। अब  जारी आंकड़ों से कोई शक ही नहीं रहा कि इस योजना में नासमझी ज्यादा थी, जिसका जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं था। जनवरी में जारी आंकड़ों से ही स्पष्ट होने लगा था कि इस योजना की क्या दिशा-दशा होने वाली है? दरअसल, आम धारणा है कि कालाधन नकदी में रहता है, जबकि यह सही नहीं है।

वास्तविकता यह है कि कालाधन विभिन्न रूपों में अर्थव्यवस्था में विद्यमान रहता है। जमीन-जायदाद, विदेशों में विभिन्न संभव मदों और बेमानी संपत्ति आदि में निवेशों के रूप में यह धन रखा जाता है। पहली बात तो यह कि अर्थव्यवस्था में कालाधन पैदा होने के तमाम तरीके हैं। हम देख सकते हैं कि कोई कारोबारी अपने वास्तविक व्यापार को कम बताकर धन-पैसा एकत्रित कर सकता है, जिसका कोई खाता-बही से ताल्लुक नहीं रहता। इसी प्रकार कोई पेशेवर दिन में अगर सौ लोगों को सेवा मुहैया कराकर आखिर में सेवा पाने वालों की कम संख्या दिखाकर ऐसा पैसा बनाता है, जिस पर उसे आयकर नहीं देना है। तो यह धन भी कालाधन कहलाता है। उसे संपत्ति आदि की खरीद-फरोख्त में निवेशित करके सुरक्षित कर लिया जाता है। विमुद्रीकरण योजना के तहत जो पैसा वापस आया है, वह दरअसल, एक तरह की गणना मात्र है। इतना तो तय था कि नोटबंदी से कालेधन पर कोई असर नहीं पडऩे वाला था। समझने वाली बात यह है कि नकदी के प्रवाह का काले धन पर कितना असर पड़ सकता है? नोटबंदी की योजना के परिणाम दिखाने वाले आंकड़ों से पता चलता है कि इसका शतांश भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाया है। नोटबंदी के पक्ष में जाली करेंसी, आतंकवाद और भ्रष्टाचार पर अंकुश जैसे उद्देश्य गिनाए गए थे, उसके नजरिये से भी इस योजना से कोई लाभ नहीं हुआ है।

सरकार अब ऐसे तर्क गढ़ रही है, जिससे कि उसकी किरकिरी न हो। वह कह रही है कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था में डिटिजलाइजेशन को प्रोत्साहन मिला है। यह तर्क बेदम है। यह नाकामी को छिपाने के लिए दी गई थोथी दलील लगती है। सच्चाई तो यह है कि डिजिटलाइजेशन को कारगर तरीके से क्रियान्वित करने के लिए देश में जरूरी ढांचागत आधार ही नहीं है। न ही आम जनता उस स्तर की डिजिटली साक्षर है कि ऐसी व्यवस्था में सार्थक और उपयोगी भूमिका का निर्वहन कर सके। न ही डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए मुफीद साबित होने वाला निगरानी तंत्र ही देश में विकसित है। इस कारण से डिजिटल युग के लिए माकूल निगरानी और मुस्तैदी न होने पर मात्र नोटबंदी के बल पर डिजिटल व्यवस्था को प्रोत्साहन मिलने की बात कहे जाने में कोई तुक नजर नहीं आता। नये नोट छापने और पुराने नोटों को सहेजने में हुए खर्च को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।

जहां तक राजनीतिक मोर्चे पर जोर-शोर से जो दावा किया गय था कि काले धन पर अंकुश लगाने के प्रयास से आम जन खुश है तो इसमें रत्तीभर भी सच्चाई नहीं है। सच तो यह है कि नोटबंदी से सर्वाधिक पीडि़त आम जन ही हुआ है। करीब 50 दिन तक जनता पैसे-पैसे को तरस गई थी। काले धन और मुनाफाखोरों पर तो अंकुश लगा नहीं, लेकिन छोटे-मोटे रोजगार करने वालों, छोटे दुकानदारों, असंगठित क्षेत्र में संलग्न कामगारों की दिक्कतें नोटबंदी ने बढ़ा दीं।

छोटे उद्यमियों को नकदी की तंगी से जो झटका लगा है, उससे उबरने में उन्हें काफी समय लग सकता है। यह स्थिति किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समूचे देश में ही ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। देश में जितनी भी रिपोर्ट और सर्वे आए, सबमें अर्थव्यवस्था के मंद होने और तरह के रोजगार पर प्रतिकूल असर पडऩे की बात कही गई। छोटे उद्यमियों और कारोबारियों को उत्पादन के सिलसिले को बनाए रखने में कई तरह की परेशानियां पेश आईं। कहना यह कि जिस तबके के फायदे के लिए इस योजना को क्रियान्वित करने के दावे किए जा रहे थे, वही तबका इसके दुष्परिणामों का सर्वाधिक शिकार हुआ है। बीते एक साल में जितने सर्वेक्षण हुए हैं, अध्ययन किए हैं, उन सभी से यह बात स्पष्ट हुई है कि नोटबंदी के फैसले या योजना से सर्वाधिक नुकसान छोटे व्यापारियों और असंगठित क्षेत्र के कामगारों को हुआ है। किसानों को भी इससे नुकसान पहुंचा।

उन्हें नकदी की कमी से काफी समय तक जूझना पड़ा। खाद-पानी, उपज को बाजार तक पहुंचाने जैसे जरूरी कामों के लिए भी पैसे की कमी महसूस हुई। सच तो यह है कि नोटबंदी से सरकार की सोच के अनुरूप परिणाम हासिल नहीं किए जा सके। आर्थिक संकेतक भी निराशाजनक दिखे। महंगाई दर में उछाल देखने को मिला। खासकर सब्जी-दाल जैसी जरूरी चीजों के बाजार तक नहीं पहुंचने के चलते उपभोक्ताओं के साथ ही काश्तकारों को भी परेशानी हुई। मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में तो किसानों को दूध-टमाटर सड़क पर फैंकने पड़े। हिंसा की घटनाएं भी हुईं। जाहिर है कि नोटबंदी का यह फैसला बिना सोचे-समझे लागू किया गया था। इसके परिणामों और मिल सकने वाले फायदों पर लगता है कि गौर ही नहीं किया गया।

लेखक, गणेश शंकर भगवती

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