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अब हिमाचल प्रदेश में चुनाव

पंजाब में गुरदासपुर उपचुनाव परिणाम आने के बाद अब सबकी नजरे हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों की ओर लग गई हैं। भाजपा ने कुल 68 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर जहां पार्टी के भीतर टिकटों को लेकर एक अनिश्चितता का दौर था, उसे समाप्त कर अब सीधे-सीधेे चुनाव जीतने के लक्ष्य की तैयारी शुरू कर दी है। तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि जिन पूर्व विधायकों की टिकटें भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने काटी हैं वह बेशक दो-तीन ही हैं। लेकिन जिनके नाम सूची में नहीं आये तथा जो टिकट प्राप्ति के लिए चाहवान अवश्य थे उन द्वारा प्रकट प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है कि भाजपा की आंतरिक धड़ेबंदी पार्टी के लिए चुनावी प्रक्रिया दौरान परेशानियां बढ़ा सकती हैं। जहां टिकटें देने की बात है तो इसमें प्रेम कुमार धूमल की इच्छा को ध्यान में रखकर ही दी गई हैं। शांता कुमार व जगत प्रकाश नड्डा दोनों हिमाचल प्रदेश की राजनीति में विशेष स्थान रखने के साथ भाजपा में भी विशेष पहचान रखते हैं। इसलिए दोनों मिलकर चुनावों के दौरान क्या भूमिका निभाते हैं इस पर भी प्रदेश भाजपा का भविष्य टिका हुआ है।

हिमाचल प्रदेश में 2012 से 2017 तक वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस रही है। लेकिन इन पांच वर्षों में राजा वीरभद्र की टांग खीचने का काम भी लगातार जारी रहा। कांग्रेस के प्रदेश संगठन और सरकार में हमेशा 36 का आंकड़ा ही रहा और यह स्थिति आज भी ऐसी है। बीच में एक समय ऐसा भी आया था कि राजा वीरभद्र सिंह की अनदेखी की जाने लगी थी तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुक्खु की राष्ट्रीय स्तर का कांग्रेस नेतृत्व अधिक सुन रहा था। वीरभद्र सिंह को जब स्थिति बिगड़ती दिखाई दी तो वीरभद्र ने स्पष्ट कर दिया कि वह सुक्खू के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ेंगे। कांग्रेस हाईकमान ने प्रदेश में कांग्रेस की बिगड़ती स्थिति को संभालने के लिए वीरभद्र को एक बार फिर मुख्यमंत्री के भावी उम्मीदवार के रूप में उतारा है। चुनाव प्रचार की कमान भी अब प्रदेश अध्यक्ष सुक्खू से लेकर वीरभद्र को दे दी गई है।

पिछले पांच वर्ष जो लोग राजा वीरभद्र की टांग खींचने का कार्य करते रहे हैं, वीरभद्र ने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ से आज उनके पैरों तले जमीन ही खींच ली लगती है। कांग्रेस हाईकमान अगर पिछले पांच वर्षों में राजा वीरभद्र विरुद्ध कांग्रेस के असंतुष्ट धड़े को संरक्षण व समर्थन न देता तो पार्टी आज बेहतर स्थिति में होती। वीरभद्र तथा उनके परिवार विरुद्ध आय से अधिक सम्पत्ति रखने के मामले में एक नहीं अनेक मुकद्दमे चल रहे हैं। राजा सहित परिवार के अन्य सदस्य भी जमानत पर चल रहे हैं। राजा वीरभद्र परिवार की कितने करोड़ों की सम्पत्तियां केंद्र सरकार ने जब्त भी कर ली हैं।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि राजा वीरभद्र के लिए 2017 के विधानसभा चुनाव एक तरह से आर पार की लड़ाई की तरह हैं। हिमाचल प्रदेश की राजनीति में पिछले 40 वर्षों से एक विशेष स्थान रखने वाले वीरभद्र ने इन चुनावों को अपना अंतिम चुनाव कहा है। इस कारण पार्टी के भीतर व पार्टी के बाहर राजा का विरोध करने वालों पर मानसिक दबाव तो पड़ेगा। यह बात शायद मतदाता के दिल को भी छू सकती है। अगर ऐसा होता है तो फिर भाजपा के लिए मुश्किलें और बढ़ सकती हैं।
प्रदेश विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले मतदाता का झुकाव भाजपा की तरफ ही था लेकिन जैसे-जैसे चुनाव प्रक्रिया तेज हो रही है, प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति पहले से बेहतर ही दिखाई दे रही है। कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में जिस तरह वीरभद्र को सर्वेसर्वा घोषित कर दिया है। इस बात का लाभ कांग्रेस को मिलने की पूरी संभावना है। राजा के बेटे विक्रमादित्य को अगर टिकट मिल जाती है तो फिर पार्टी में बाप बेटे को कोई भी अनदेखा करने की स्थिति में नहीं होगा।
प्रेम कुमार धूमल के लिए सबसे अधिक परेशानी का कारण यह ही है कि पार्टी की आंतरिक धड़ेबंदी पर अभी उनकी पकड़़ कम•ाोर है। पार्टी हाईकमान भी अभी भावी मुख्यमंत्री कौन होगा, इस बारे कुछ कह नहीं रही। इस अनिश्चितता के दौर का लाभ भी राजा वीरभद्र व कांग्रेस को ही मिलने वाला है।

धरातल स्तर पर जीएसटी की मुश्किलों को सुलझाने के लिए अभी कोई ठोस कदम भाजपा की केंद्र सरकार नहीं उठा सकी। जीएसटी बेशक देशहित में है लेकिन तकनीकी दृष्टि से धरातल स्तर पर आ रही मुश्किलों के कारण व्यापारी वर्ग भाजपा से नाराज ही चल रहा है। हिमाचल में उपरोक्त वर्ग किस दिशा में बैठता है यह बात भी चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस में कांटे की टक्कर होगी, लेकिन भाजपा आज लाभ वाली स्थिति में ही दिखाई दे रही है।

लेखक, इरविन खन्ना, मुख्य संपादक, दैनिक उत्तम हिन्दू।

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